एपीजे अब्दुल कलाम: एक साधारण लड़के की अखबार बेचने से लेकर भारत को मिसाइल तकनीकी के क्षेत्र में मजबूत बनाने और देश का प्रथम नागरिक बनने तक की यात्रा
यह कहानी है उस एक सधारण लड़के की जिसने कभी अपना घर चलाने के लिए बचपन में अखबार बांटा, रात दिन कई वर्षों तक अपने कठोर परिश्रम से भारत को मिसाइल तकनीकी के क्षेत्र में शक्तिशाली बनाया और देश का प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति बने। हम जिसके विषय में बताने जा रहे हैं देश के मिसाइल मैन के नाम से जाना जाने वाले हमारे देश के 11वें राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम।
![]() |
| APJ Abdul Kalam |
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को रामेश्वरम, तमिलनाडु में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनका पुरा नाम अबुल पाकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम था। उनके पिता का नाम जैनुलाब्दीन मराकायार एक नाविक थे और माता का नाम आशियम्मा एक गृहणी थी। कलाम का परिवार आर्थिक रूप से बहुत ही गरीब था। उनके पिता का एक छोटा सा नाव था जिसे वह मछुआरों को किराए पर दते थे और तीर्थ यात्रियों को अपने नाव से सैर कराते थे। उनके पिता बहुत ही अनुशासित व्यक्ति थे और वह स्थानीय मस्जिद के इमाम भी थे। उनकी बातों में गहरी आध्यात्मिकता थी। कलाम के मन में उनके अपने पिता के बातों का बहुत प्रभाव पड़ता था। बचपन उन्हीं के बातों को सुनकर उनके मन में विज्ञान और अध्यात्म की जड़ें जमने लगी। उनका घर एक संयुक्त परिवार वाला था जिसमें अनेक सदस्य थे। उनकी माता बहुत ही दयालु स्वभाव की थी।
उनके घर में गरीबी होने के बावजूद खाने वालों की तादाद ज्यादा होती थी। उनके घर में मेहमान नवाजी बहुत ही अच्छे से होती थी। कोई भी उनके घर से भूखा नहीं जाता था। उनकी माता का कहना था कि खाना हमेशा बांटने ही बढ़ता है। उनकी माता की यही करुणा और सादगी कलाम के भीतर नींव बनी। कलाम सुबह 4:00 उठकर गणित का ट्यूशन पढ़ने के लिए जाते । यह ट्यूशन उसे मुफ्त में मिलती थी। इसके बाद वह अपना घर चलाने के लिए रामेश्वरम रोड जाकर वहां से अखबार का ढेर उठाकर बांटने जाते थे। यह काम करते हुए वह पसीने से भीग जाते थे परंतु उनके चेहरे पर एक मुस्कान होती थी। यही से उन्होंने आत्मनिर्भरता का पाठ सिख लिया। काम छोटा हो या बड़ा वह उसे पूरे दिल से करते थे। कलाम के जीवन को आकार देने में उनके शिक्षकों का भी बहुत बड़ा योगदान था।
विशेषकर श्री शिवा सुब्रह्मण्या अय्यर जो कलाम को केवल अपना शिष्य ही नहीं बल्कि उसे भविष्य का सितारा मानते थे। एक बार उन्होंने उसे अपने घर खाना खाने के लिए बुलाया तो उनकी पत्नी ने उसे खाना खिलाने से मना कर दिया क्योंकि कलाम एक मुस्लिम परिवार से थे। इससे अय्यर गुस्सा हो जाते हैं और कलाम को अपने हाथों से खाना खिलाते हैं। उसके अगले हफ्ते अय्यर की पत्नी ने कलाम को अपने रसोई में बुलाकर बैठाया और उसे खाना खिलाया। यह घटना कलाम के मन में हमेशा लिए बैठ गया और उन्होंने यह सीख लिया की कि अगर किसी का इरादा पक्का हो वह समाज की दीवारें ढह सकता है।
उन्हें आसमान का सपना हमेशा अपनी ओर खींचना था। वह समुद्र किनारे घंटे बैठकर पक्षियों को दखते और कहते एक दिन मैं भी इनके जैसा उड़ुगा। यह उनके भीतर एक जुनून था। यही सपना उनके भीतर दिशा तय करती है। भौतिक और गणित उनका सबसे पसंदीदा विषय था। वह जानते थे की यही विषय उनके उड़ान का सपना पुरा कर सकता है। उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि उनकी मंजिल जमीन नहीं आसमान है । थोड़े बड़े होने पर 1950 में जब वह 19 वर्ष के हुए तो उनका सपना उन्हें समुद्र से उठाकर आसमान की ओर ले जा रहा था। सेंट जोसेफ कॉलेज से भौतिक का पढ़ाई करने के बाद उन्होंने मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी MIT मैं दाखिला लेने का सोचा।
यह उनके लिए आसान नहीं था। उनके परिवार के पास उन्हें दाखिला दिलाने के लिए पैसे नहीं थे। उनकी बड़ी बहन ने कलाम की पढ़ाई करने की तीव्र इच्छा को देखकर अपने सोने की चूड़ियां और हार गिरवी रख दिया और उन पैसों से कलम को पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने उसे कहा- तुम्हारा सपना मेरा सपना है। उनकी आवाज में प्रेम और प्रेम की गहराई थी। उनके बहन का यह बलिदान कलाम के कंधों पर एक भारी जिम्मेदारी डाल देते हैं। कलम ठान लेते है कि वह अपने बहन का कर्ज जरुर चुकाएंगे। इसके बाद वह MIT में एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में दाखिला ले लेते हैं। यह विषय उनके बचपन का फाइटर पायलट बनने का सपना पूरा करने का था।MIT में उनका प्रतिभा चमक उठा और अपने परिश्रम और लगन से सभी को प्रभावित किया। एक बार कलाम के एक प्रोजेक्ट को उनके प्रोसेसर ने अधूरा बता दिया और कठोरता भरे वचनों से उसे 3 दिन में पूरा करने को कहा। उस रात उन्होंने न खाना खाया और न सोया। वह 72 घंटे तक अपने ड्राइंग बोर्ड के सामने डटे रहे। उनकी उंंगलियांं थक गई और आंख लाल हो गई, परंतुु उनका हौसला डगमगाया नहीं। जब तीसरेेेेेेे दिन वह अपना प्रोजेक्ट अपने प्रोफेसर को दिखाने गए, तो दंग रह गए। उनकेे आंखों में आंसु थे। उन्होंनेे उससे कहा-कलाम मैंं यह जानता था कि तुम यह कर लोगे और उसेे गले लगा लिया। कलाम को यह एहसास हो गया कि मेहनत और लगन से कोई भी मंजिल संभव है। 1958 को MIT सेे अपनी इंजीनियरिंग पूरी करनेेे के बाद वह पल आ ही गया जिसका कलाम को बेसब्री से इंतज़ार था।उन्हें दो इंटरव्यू केेे लिए बुलावा आया। एक था दिल्ली रक्षा मंत्रालय केे तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय से और दूसरा भारतीय वायु सेना देहरादून से। वह एक फाइटर पायलट बनना चाहतेे थे इसलिए उन्होंने देहरादून को चुना। जब इटरव्यू का दिन आया , तो 8 की आवश्यकता थी और 25 उम्मीदवार थे। उन्होंनेे स्वयं को पूरी तरह झोंक दिया और पूरे आत्मविश्वास से अपना इंटरव्यू दिया। लेकिन जब परिणाम आया तो एक-एक करके 8 नाम पुकारे गए, तोोो उनका नाम 9वें स्थान पर था। वह अपनेे सपने से केवल एक कदम की दूरी पर थे। उनका सपना चूर चूर हो जाता है और पूरी तरह से टूट जातेे हैं। अपनेेे टूटे हुए मन को लेकर शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश पहुंचते हैं जहांं वह स्वामी शिवानंद से मिलते हैं। स्वामी शिवानंद उनसेे कहते हैं-यह तुम्हारी नियति नहीं थी, अपनी असफलता को गले लगाओ। उनकेे शब्दों ने कलाम केेे दिल पर मरहम लगानेे का कार्य किया। उन्होंनेेे सोचा शायद आसमान ने मेरेेे लिए दूसरा रास्ता चुना है। उन्होंनेे हार न मानने की ठानी। वह अपनेेे दूसरे इंटरव्यू केेे लिए दिल्ली गए और रक्षा मंत्रालय का नौकरी जॉइन किया। परंतुु यह केवल नौकरी नहींं थी। यह उस यात्रा की शुरुआत थी, जो उन्हें यहां से पोखरण की रेगिस्तान तक लेे जाती है। यह वह नई कहानी की शुरुआत थी जिसनेे भारत को एक नई ताकत दी। रक्षा मंत्रालय में कुछ समय काम करने के बाद उन्हेंं 1979 में अंतरिक्षष कार्यक्रम केेेे जनक डॉ विक्रम साराभाई ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधन संगठन (ISRO) में भेज दिया।उस समय भारत का अंतरिक्ष सपना अपनी शुरुआती कदम की ओर बढ़ रहा था। केरल की थुंबा में वैज्ञानिकों द्वारा साइकिलों पर रॉकेट के पुर्जे ढोए जा रहे थे, वहां एक नया सूरज उग रहा था। डॉ विक्रम साराभाई ने कलाम की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें भारत के पहले स्वदेशी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल SLV-3 का प्रोजेक्ट डायरेक्टर बना दिया। यह डॉ कलाम को बहुत बड़ी जिम्मेदारी मिली थी। उन्हें अगले 10 साल के भीतर 40 किलो के रोहिणी नामक सैटेलाइट को पृथ्वी के कक्षा में स्थापित करने का लक्ष्य दिया गया। कलाम और उनके साथी वैज्ञानिकों ने दिन रात एक कर थुंबा और श्रीहरिकोटा में रातें जागकर, पसीना बहाकर असंभव को संभव बनाने की जिद में डुबे रहे। यह केवल एक रॉकेट नहीं था। यह भारत का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट के साथ-साथ भारत का गर्व था। कलाम की अगुवाई में यह भारत का राष्ट्रीय जुनून बन गया था। उनकी आवाज में ऐसा प्रभाव था जो पुरी टीम को एकजुट कर सकती थी। आखिरकार वह दिन आ ही जाता है जब 10 अगस्त 1979 श्रीहरिकोटा के लॉन्च पैड SLV-3 आसमान की ओर खड़ा था। पूरा देश सांसे थामें इस ऐतिहासिक पल का इंतजार कर रहा था। कंट्रोल रूम में सन्नाटा था, परंतु तनाव हवा में तैर रहा था। जैसे ही काउंटडाउन शुरू हुआ लॉन्च से ठीक पहले कंप्यूटर में लाल बत्ती जल गई गई। यह सिस्टम में कुछ गड़बड़ी होने का संकेत था। डायरेक्टर के रूप में अंतिम फैसला उन्हें लेना था। उनके विशेषज्ञों ने उन्हें कहा की कैलकुलेशन सही है और लॉन्च के साथ आगे बढ़ सकते हैं। कलाम ने उन पर भरोसा किया और लॉन्च का बटन दबा दिया। SLV-3 आसमान की ओर आगे बड़ा और कंट्रोल रूम में लोग खुशी से तालियां बजाने लगे। परंतु यह खुशी कुछ ही पल के लिए थी।
दूसरे चरण में वह रोकेट लड़खड़ाया और नियंत्रण खो बैठा। 317 सेकंड बाद वह बंगाल की खाड़ी में गिरकर समा गया। पूरे कंट्रोल रूम में दुख का माहौल छा गया। 10 साल का परिश्रम और लगन सब समुद्र में समा गया। इससेेे कलाम पूरी तरह से निराश होकर टूट जातेे हैं। वह अपनी नज़रें किसी से नहींं मिला पाते हैं और स्वयंं को इसकेेे लिए जिम्मेदार मानते हैं। इसकेे बाद उन्हें दुनिया को जवाब देना था। मीडिया उनका प्रतीक्षा कर रही थी। कलाम समझ नहींं पा रहे थे कि वह क्या कहें। तभी ISRO केे चेयरमेन प्रोफेसर सतीश धवन कलाम के पास आकर उनका कंधा थपथपाते हैं और अपनेे साथ चलने को कहतेे हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवन माइक केे आगे और कलम उनकेेे पीछे होते हैं। धवन कहते हैं -आज हम असफल हुए हैं, इसकी पुरी जिम्मेदारी मेरी है, मुझे अपनी पूरी टीम पर गर्व है, उनकी मेहनत बेमिसाल है। वह उनसेे वादा करते हैं कि अगले साल हम जरुर सफल होंगे। प्रोफेसर धवन का यह नेतृत्व का पाठ था जो किसी पुस्तक में नहीं पढ़ाया जाता है। उन्होंनेेेेेे असफलता का सरा जिम्मा अपनेेेे ऊपर लेे लिया और अपनी टीम को आलोचना से बचा लिया। इस बात नेे उनके पुरेे टीम में एक नई जान फूंक दी और दुगनी ऊर्जा के साथ फिर सेे काम में जुट गए। इससेे कलाम में भी एक नई ऊर्जा आ गई। ठीक 1 साल बाद 18 जुलाई 198को श्रीहरिकोटा केे उसी लॉन्च पैड पर SLV-3 फिर से तैयार था।
इस बार रोकेट आसमान को छू गया और रोहिणी सैटेलाइट पृथ्वी की कक्षा में स्थापित हो गया। इसके बाद भारत उन देशों में शामिल हो जाता है जिनके पास अपनी स्वयं की सेटेलाइट लॉन्च करने की ताकत थी। उनके कंट्रोल रूम में खुशी का ठिकाना नहीं था। तालियां, आंसू और गर्व एक साथ उमड़ने लगा। इस बार जब मीडिया आया कलम को आगे कर माइक थमाया और कलाम को कहने लिए कहा। अपने इस घटना का जिक्र करते हुए कलाम ने कई बार कहा है कि मैंने उस दिन नेतृत्व का सबसे बड़ा पाठ सिखा। जब असफलता आती है तो एक सच्चा लीडर उसकी जिम्मेदारी लेता है और जब सफलता मिलती है, तो अपनी सफलता का श्रेय अपनी टीम को देता है। यह सबक के सथ-साथ एक विरासत थी जो धवन ने कलाम को सौंपे थे। SLV-3 की सफलता कलम को देश का नायक बना देता है। इसके बाद कलम का दिल नए सपना के लिए धड़क रहा था। वह भारत को आत्मनिर्भर बनना चाहते थे जो अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर भी निर्भर न हो। वह 1982 में ISRO मैं इसरो छोड़कर रक्षा अनुसंधान और विकास(DRDO) में फिर से शामिल हो गए। उस समय भारत मिसाइल तकनीकी के लिए विदेशों पर निर्भर रहता था। पश्चिमी देशों ने मिसाइल तकनीकी जैसे जरूरी चीजें देने से प्रतिबंध लगा दिया था। कलाम ने उसे समय के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने एक योजना रखी जिसका नाम था-Integrated Guided Missile Development Program (IGMDP)। इसका उद्देश्य भारत को मिसाइल तकनीकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना था।26 जुलाई 1983 को भारत सरकारने ने इस ऐतिहासिक कार्यक्रम को अपनी मंजूरी दी। IGMDP के तहत एक साथ पांच मिसाइलों को विकसित करने का काम शुरू हुआ। इन पांच मिसाइलों को'भारत का पांच दिव्यास्त्र' कहा गया। इन्हें याद रखने क लिए PATNA एक्रोनीम का उपयोग किया गया। जहां उनके अर्थ कुछ इस प्रकार है- P-पृथ्वी, A-अग्नि, T-त्रिशूल, N-नाग और A-आकाश। यह काम आसान नहीं था। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध होने के कारण भारत को रिंग लेज़र, जायरोस्कोप, कंपोजिट राकेट मोटर और माइक्रो नेविगेशन जैसी मुश्किल तकनीकें खुद विकसित करनी पड़ी। यह रक्षा परियोजना के साथ साथ भारत की तकनीकी स्वतंत्रता की घोषणा थी। कलम इस तकनीक संप्रभुत्वा के वास्तुकार बन गया थे। वह अपनी टीम को राष्ट्रीय मिशन के लिए तैयार करते थे। उनकी रात दिन की मेहनत और अनगिनत चुनौतियों के बाद वह दिन आ ही गया 22 मई 1989 को उड़ीसा के तट पर अग्नि मिसाइल लॉन्च के लिए तैयार थी। कंट्रोल रूम में सन्नाटा के साथ सबके मन में यही प्रश्न था इस बार सफलता मिल जाए। ऐसे ही अग्नि मिसाइल आसमान को चीर धरती कांप उठी। यह एक भारत की हुंकार थी दुनिया के कानों तक पहुंची। इस कार्यक्रम के सफलता के बाद उन्हें 'मिसाइल मेन 'कहा गया। फिर 25 जुलाई 2002 को उन्होंने भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। यह पहली बार था जब कोई वैज्ञानिक राष्ट्रपति के पद तक पहुंचा। वह अब देशक प्रथम नागरिक थे। उनके लिए यह पद सत्ता का प्रतीक न हीहीं बल्कि सेवा का सबसे बड़ा अवसर था। वह राष्ट्रपति भवन तो गए परंतु अपनी सादगी अपने साथ ले गए। उन्होंने राष्ट्रपति भवन बच्चों, युवाओं और आम लोगों के लिए खोल दिए। उनका मानना था कि भारत का भविष्य इन्हीं के हाथों है। वह एक ऐसे राजा थे जिनके भीतर संत बसा था। राष्ट्रपति के पद से मुक्त होने पर भी वहां रुके नहीं , वह देश विदेश विदेश के विश्वविद्यालयों में जाकर जाकर छात्रों को प्रेरित करते। 27 जुलाई 2015 में वह ऐसे ही कार्यक लिए IIM शिलांग गए। लेक्चर हॉल पूरी तरह से भरा हुआ था, सभी छात्र उनका स्वागत थालियों से करते हैं। उन्होंने अपना लेक्चर शुरू ही किया था कि मंच पर ही गिर गये । उन्हें पास के बेतानी अस्पताल ले जाया गया गया। शाम 7:45 में उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। उनका जीवन ज्ञान से ही शुरू हुआ और अंत भी ज्ञान देते हुए हुआ। उन्होंने कहा था सपना वह नहीं है जो आप सोते हुए देखते हैं, सपना तो वह है जो आपको सोने नहीं देती। तो यहां थी हमारे मिसाइल मैन भारत के 11 राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की।
यह उनके लिए आसान नहीं था। उनके परिवार के पास उन्हें दाखिला दिलाने के लिए पैसे नहीं थे। उनकी बड़ी बहन ने कलाम की पढ़ाई करने की तीव्र इच्छा को देखकर अपने सोने की चूड़ियां और हार गिरवी रख दिया और उन पैसों से कलम को पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने उसे कहा- तुम्हारा सपना मेरा सपना है। उनकी आवाज में प्रेम और प्रेम की गहराई थी। उनके बहन का यह बलिदान कलाम के कंधों पर एक भारी जिम्मेदारी डाल देते हैं। कलम ठान लेते है कि वह अपने बहन का कर्ज जरुर चुकाएंगे। इसके बाद वह MIT में एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में दाखिला ले लेते हैं। यह विषय उनके बचपन का फाइटर पायलट बनने का सपना पूरा करने का था।MIT में उनका प्रतिभा चमक उठा और अपने परिश्रम और लगन से सभी को प्रभावित किया। एक बार कलाम के एक प्रोजेक्ट को उनके प्रोसेसर ने अधूरा बता दिया और कठोरता भरे वचनों से उसे 3 दिन में पूरा करने को कहा। उस रात उन्होंने न खाना खाया और न सोया। वह 72 घंटे तक अपने ड्राइंग बोर्ड के सामने डटे रहे। उनकी उंंगलियांं थक गई और आंख लाल हो गई, परंतुु उनका हौसला डगमगाया नहीं। जब तीसरेेेेेेे दिन वह अपना प्रोजेक्ट अपने प्रोफेसर को दिखाने गए, तो दंग रह गए। उनकेे आंखों में आंसु थे। उन्होंनेे उससे कहा-कलाम मैंं यह जानता था कि तुम यह कर लोगे और उसेे गले लगा लिया। कलाम को यह एहसास हो गया कि मेहनत और लगन से कोई भी मंजिल संभव है। 1958 को MIT सेे अपनी इंजीनियरिंग पूरी करनेेे के बाद वह पल आ ही गया जिसका कलाम को बेसब्री से इंतज़ार था।उन्हें दो इंटरव्यू केेे लिए बुलावा आया। एक था दिल्ली रक्षा मंत्रालय केे तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय से और दूसरा भारतीय वायु सेना देहरादून से। वह एक फाइटर पायलट बनना चाहतेे थे इसलिए उन्होंने देहरादून को चुना। जब इटरव्यू का दिन आया , तो 8 की आवश्यकता थी और 25 उम्मीदवार थे। उन्होंनेे स्वयं को पूरी तरह झोंक दिया और पूरे आत्मविश्वास से अपना इंटरव्यू दिया। लेकिन जब परिणाम आया तो एक-एक करके 8 नाम पुकारे गए, तोोो उनका नाम 9वें स्थान पर था। वह अपनेे सपने से केवल एक कदम की दूरी पर थे। उनका सपना चूर चूर हो जाता है और पूरी तरह से टूट जातेे हैं। अपनेेे टूटे हुए मन को लेकर शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश पहुंचते हैं जहांं वह स्वामी शिवानंद से मिलते हैं। स्वामी शिवानंद उनसेे कहते हैं-यह तुम्हारी नियति नहीं थी, अपनी असफलता को गले लगाओ। उनकेे शब्दों ने कलाम केेे दिल पर मरहम लगानेे का कार्य किया। उन्होंनेेे सोचा शायद आसमान ने मेरेेे लिए दूसरा रास्ता चुना है। उन्होंनेे हार न मानने की ठानी। वह अपनेेे दूसरे इंटरव्यू केेे लिए दिल्ली गए और रक्षा मंत्रालय का नौकरी जॉइन किया। परंतुु यह केवल नौकरी नहींं थी। यह उस यात्रा की शुरुआत थी, जो उन्हें यहां से पोखरण की रेगिस्तान तक लेे जाती है। यह वह नई कहानी की शुरुआत थी जिसनेे भारत को एक नई ताकत दी। रक्षा मंत्रालय में कुछ समय काम करने के बाद उन्हेंं 1979 में अंतरिक्षष कार्यक्रम केेेे जनक डॉ विक्रम साराभाई ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधन संगठन (ISRO) में भेज दिया।उस समय भारत का अंतरिक्ष सपना अपनी शुरुआती कदम की ओर बढ़ रहा था। केरल की थुंबा में वैज्ञानिकों द्वारा साइकिलों पर रॉकेट के पुर्जे ढोए जा रहे थे, वहां एक नया सूरज उग रहा था। डॉ विक्रम साराभाई ने कलाम की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें भारत के पहले स्वदेशी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल SLV-3 का प्रोजेक्ट डायरेक्टर बना दिया। यह डॉ कलाम को बहुत बड़ी जिम्मेदारी मिली थी। उन्हें अगले 10 साल के भीतर 40 किलो के रोहिणी नामक सैटेलाइट को पृथ्वी के कक्षा में स्थापित करने का लक्ष्य दिया गया। कलाम और उनके साथी वैज्ञानिकों ने दिन रात एक कर थुंबा और श्रीहरिकोटा में रातें जागकर, पसीना बहाकर असंभव को संभव बनाने की जिद में डुबे रहे। यह केवल एक रॉकेट नहीं था। यह भारत का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट के साथ-साथ भारत का गर्व था। कलाम की अगुवाई में यह भारत का राष्ट्रीय जुनून बन गया था। उनकी आवाज में ऐसा प्रभाव था जो पुरी टीम को एकजुट कर सकती थी। आखिरकार वह दिन आ ही जाता है जब 10 अगस्त 1979 श्रीहरिकोटा के लॉन्च पैड SLV-3 आसमान की ओर खड़ा था। पूरा देश सांसे थामें इस ऐतिहासिक पल का इंतजार कर रहा था। कंट्रोल रूम में सन्नाटा था, परंतु तनाव हवा में तैर रहा था। जैसे ही काउंटडाउन शुरू हुआ लॉन्च से ठीक पहले कंप्यूटर में लाल बत्ती जल गई गई। यह सिस्टम में कुछ गड़बड़ी होने का संकेत था। डायरेक्टर के रूप में अंतिम फैसला उन्हें लेना था। उनके विशेषज्ञों ने उन्हें कहा की कैलकुलेशन सही है और लॉन्च के साथ आगे बढ़ सकते हैं। कलाम ने उन पर भरोसा किया और लॉन्च का बटन दबा दिया। SLV-3 आसमान की ओर आगे बड़ा और कंट्रोल रूम में लोग खुशी से तालियां बजाने लगे। परंतु यह खुशी कुछ ही पल के लिए थी।
दूसरे चरण में वह रोकेट लड़खड़ाया और नियंत्रण खो बैठा। 317 सेकंड बाद वह बंगाल की खाड़ी में गिरकर समा गया। पूरे कंट्रोल रूम में दुख का माहौल छा गया। 10 साल का परिश्रम और लगन सब समुद्र में समा गया। इससेेे कलाम पूरी तरह से निराश होकर टूट जातेे हैं। वह अपनी नज़रें किसी से नहींं मिला पाते हैं और स्वयंं को इसकेेे लिए जिम्मेदार मानते हैं। इसकेे बाद उन्हें दुनिया को जवाब देना था। मीडिया उनका प्रतीक्षा कर रही थी। कलाम समझ नहींं पा रहे थे कि वह क्या कहें। तभी ISRO केे चेयरमेन प्रोफेसर सतीश धवन कलाम के पास आकर उनका कंधा थपथपाते हैं और अपनेे साथ चलने को कहतेे हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवन माइक केे आगे और कलम उनकेेे पीछे होते हैं। धवन कहते हैं -आज हम असफल हुए हैं, इसकी पुरी जिम्मेदारी मेरी है, मुझे अपनी पूरी टीम पर गर्व है, उनकी मेहनत बेमिसाल है। वह उनसेे वादा करते हैं कि अगले साल हम जरुर सफल होंगे। प्रोफेसर धवन का यह नेतृत्व का पाठ था जो किसी पुस्तक में नहीं पढ़ाया जाता है। उन्होंनेेेेेे असफलता का सरा जिम्मा अपनेेेे ऊपर लेे लिया और अपनी टीम को आलोचना से बचा लिया। इस बात नेे उनके पुरेे टीम में एक नई जान फूंक दी और दुगनी ऊर्जा के साथ फिर सेे काम में जुट गए। इससेे कलाम में भी एक नई ऊर्जा आ गई। ठीक 1 साल बाद 18 जुलाई 198को श्रीहरिकोटा केे उसी लॉन्च पैड पर SLV-3 फिर से तैयार था।
इस बार रोकेट आसमान को छू गया और रोहिणी सैटेलाइट पृथ्वी की कक्षा में स्थापित हो गया। इसके बाद भारत उन देशों में शामिल हो जाता है जिनके पास अपनी स्वयं की सेटेलाइट लॉन्च करने की ताकत थी। उनके कंट्रोल रूम में खुशी का ठिकाना नहीं था। तालियां, आंसू और गर्व एक साथ उमड़ने लगा। इस बार जब मीडिया आया कलम को आगे कर माइक थमाया और कलाम को कहने लिए कहा। अपने इस घटना का जिक्र करते हुए कलाम ने कई बार कहा है कि मैंने उस दिन नेतृत्व का सबसे बड़ा पाठ सिखा। जब असफलता आती है तो एक सच्चा लीडर उसकी जिम्मेदारी लेता है और जब सफलता मिलती है, तो अपनी सफलता का श्रेय अपनी टीम को देता है। यह सबक के सथ-साथ एक विरासत थी जो धवन ने कलाम को सौंपे थे। SLV-3 की सफलता कलम को देश का नायक बना देता है। इसके बाद कलम का दिल नए सपना के लिए धड़क रहा था। वह भारत को आत्मनिर्भर बनना चाहते थे जो अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर भी निर्भर न हो। वह 1982 में ISRO मैं इसरो छोड़कर रक्षा अनुसंधान और विकास(DRDO) में फिर से शामिल हो गए। उस समय भारत मिसाइल तकनीकी के लिए विदेशों पर निर्भर रहता था। पश्चिमी देशों ने मिसाइल तकनीकी जैसे जरूरी चीजें देने से प्रतिबंध लगा दिया था। कलाम ने उसे समय के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने एक योजना रखी जिसका नाम था-Integrated Guided Missile Development Program (IGMDP)। इसका उद्देश्य भारत को मिसाइल तकनीकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना था।26 जुलाई 1983 को भारत सरकारने ने इस ऐतिहासिक कार्यक्रम को अपनी मंजूरी दी। IGMDP के तहत एक साथ पांच मिसाइलों को विकसित करने का काम शुरू हुआ। इन पांच मिसाइलों को'भारत का पांच दिव्यास्त्र' कहा गया। इन्हें याद रखने क लिए PATNA एक्रोनीम का उपयोग किया गया। जहां उनके अर्थ कुछ इस प्रकार है- P-पृथ्वी, A-अग्नि, T-त्रिशूल, N-नाग और A-आकाश। यह काम आसान नहीं था। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध होने के कारण भारत को रिंग लेज़र, जायरोस्कोप, कंपोजिट राकेट मोटर और माइक्रो नेविगेशन जैसी मुश्किल तकनीकें खुद विकसित करनी पड़ी। यह रक्षा परियोजना के साथ साथ भारत की तकनीकी स्वतंत्रता की घोषणा थी। कलम इस तकनीक संप्रभुत्वा के वास्तुकार बन गया थे। वह अपनी टीम को राष्ट्रीय मिशन के लिए तैयार करते थे। उनकी रात दिन की मेहनत और अनगिनत चुनौतियों के बाद वह दिन आ ही गया 22 मई 1989 को उड़ीसा के तट पर अग्नि मिसाइल लॉन्च के लिए तैयार थी। कंट्रोल रूम में सन्नाटा के साथ सबके मन में यही प्रश्न था इस बार सफलता मिल जाए। ऐसे ही अग्नि मिसाइल आसमान को चीर धरती कांप उठी। यह एक भारत की हुंकार थी दुनिया के कानों तक पहुंची। इस कार्यक्रम के सफलता के बाद उन्हें 'मिसाइल मेन 'कहा गया। फिर 25 जुलाई 2002 को उन्होंने भारत के 11वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। यह पहली बार था जब कोई वैज्ञानिक राष्ट्रपति के पद तक पहुंचा। वह अब देशक प्रथम नागरिक थे। उनके लिए यह पद सत्ता का प्रतीक न हीहीं बल्कि सेवा का सबसे बड़ा अवसर था। वह राष्ट्रपति भवन तो गए परंतु अपनी सादगी अपने साथ ले गए। उन्होंने राष्ट्रपति भवन बच्चों, युवाओं और आम लोगों के लिए खोल दिए। उनका मानना था कि भारत का भविष्य इन्हीं के हाथों है। वह एक ऐसे राजा थे जिनके भीतर संत बसा था। राष्ट्रपति के पद से मुक्त होने पर भी वहां रुके नहीं , वह देश विदेश विदेश के विश्वविद्यालयों में जाकर जाकर छात्रों को प्रेरित करते। 27 जुलाई 2015 में वह ऐसे ही कार्यक लिए IIM शिलांग गए। लेक्चर हॉल पूरी तरह से भरा हुआ था, सभी छात्र उनका स्वागत थालियों से करते हैं। उन्होंने अपना लेक्चर शुरू ही किया था कि मंच पर ही गिर गये । उन्हें पास के बेतानी अस्पताल ले जाया गया गया। शाम 7:45 में उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। उनका जीवन ज्ञान से ही शुरू हुआ और अंत भी ज्ञान देते हुए हुआ। उन्होंने कहा था सपना वह नहीं है जो आप सोते हुए देखते हैं, सपना तो वह है जो आपको सोने नहीं देती। तो यहां थी हमारे मिसाइल मैन भारत के 11 राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की।

.jpeg)


.jpeg)
%20(5).jpeg)
%20(6).jpeg)

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें