सोमनाथ मंदिर : वह मंदिर जिस पर 17 बार आक्रमण हुआ।
आज हम जिस मंदिर के विषय में बात करने वाले हैं वह मंदिर प्राचीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। यह मंदिर प्राचीन काल में अपने ऊपर हुए अनेक आक्रमणों से कई बार ध्वस्त हुआ, परंतु फिर भी कई बार पुनर्निर्माण होकर आज भी अपने अस्तित्व में है। साथ ही इस मंदिर का निर्माण हर युग में हुआ और हर युग में इसका नाम भी बदलता रहता है। यह मंदिर है सोमनाथ का मंदिर।
सोमनाथ मंदिर
सोमनाथ मंदिर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में बेरावल बंदरगाह में स्थित भगवान शिवजी का एक प्रमुख ज्योतिर्लिंग है। यह शिवजी के 12 ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग है। यह हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक स्थल है। यह मंदिर कपिला, हिरण्या और सरस्वती नदियों के त्रिवेणी संगम पर है। इस मंदिर पर विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा कई बार आक्रमण करके इसे धस्त किया गया, परंतु इस मंदिर को भारतीयों द्वारा फिर से कई बार पुनर्निर्माण कर लिया गया। ऐसा मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण हर युग में किया गया है। शास्त्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण स्वयं चंद्र देव ने किया था। साथ ही श्रीकृष्ण ने इसी स्थान पर अपना देह त्याग किया था और यह एक ऐसा स्थान है जहां भगवान शिव जी प्रकाश के एक उग्र स्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे।सोमनाथ मंदिर की पौराणिक कथा
शास्त्रों के अनुसार, सतयुग में दक्ष प्रजापति नामक एक महान और तेजस्वी राजा थे। उनकी 27 सुंदर पुत्रियां थीं। उन्होंने 27 नक्षत्रों के नाम पर उनका नाम रखा था। वे चाहते थे कि उनकी सभी पुत्रियां प्रसन्न रहें। इसलिए वे अपने सभी पुत्रियों का विवाह चंद्रदेव से करवा देते हैं। चंद्र देव बहुत ही सुंदर और आकर्षक थे। उनके तेज से पूरा आकाश अलौकिक हो जाता था। विवाह के बाद चंद्र देव सभी के साथ रहने लगते हैं, परंतु उनका ध्यान केवल उनकी एक ही पत्नी रोहिणी पर ही केंद्रित होता है। वे रोहिणी को ही सबसे प्रिय मानते हैं। जैसे-जैसे समय बीतने लगता है, चंद्र देव अपने बाकी सभी 26 पत्नियों का उपेक्षा करने लगते हैं। वे केवल रोहिणी को ही अपना समय देते हैं। इससे उनकी अन्य सभी पत्नियां उनसे दुखी हो जाती हैं। वे सभी अपने पिता दक्ष प्रजापति के पास जाती हैं और चंद्रदेव का उनके प्रति अनुचित व्यवहार के विषय में शिकायत करती हैं। दक्ष प्रजापति चंद्र देव को समझने का प्रयास करते हैं, परंतु उनमें कोई भी परिवर्तन न होने के कारण वे क्रोधित हो जाते हैं। वे चंद्र देव को श्राप दे देते हैं कि उनका तेज धीरे-धीरे क्षीण होकर निस्तेज हो जाएगा और वे कुरूप हो जाएंगे। इस श्राप के कारण चंद्र देव की आभा मुरझाकर शरीर दुर्बल हो जाता है और उनका सौंदर्य लुप्त होने लगता है। इससे समुद्र की लहरें, औषधियों की शक्ति और नक्षत्र की चाल प्रभावित होने लगता है। इससे चंद्र देव चिंतित होकर ब्रह्मा देव जी के पास मार्गदर्शन के लिए जाते हैं। ब्रह्मा देव जी उन्हें प्रभास तीर्थ के तट पर जाकर शिवजी का तपस्या करने को कहते हैं। प्रभास तीर्थ को ही आज सोमनाथ के नाम से जाना जाता है। चंद्र देव प्रभास तीर्थ के तट पर जाकर शिवलिंग स्थापित करके कठोर तपस्या में लीन हो जाते हैं। उनके कठोर तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी उन्हें दर्शन देते हैं। शिवजी उन्हें श्राप से मुक्त होने का वरदान तो देते हैं, परंतु श्राप कठोर होने के कारण वे उनसे कहते हैं कि उनका तेज महीने में 15 दिन घटेगा और 15 दिन बढ़ेगा। शिवजी के इसी वरदान के कारण ही हम चंद्रमा को कृष्ण पक्ष में घटते और शुक्ल पक्ष में बढ़ते हुए देखते हैं। चंद्र देव शिवजी से एक और वरदान मांगते हैं। वे शिवजी को अपने स्थापित किए हुए शिवलिंग में सदेव ही निवास करने के लिए कहते हैं। शिवजी उन्हें यह वरदान भी दे देते हैं। तभी से यह शिवलिंग सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध होता है। चंद्र देव शिव जी के कृपा से सोने से पहला भव्य मंदिर बनाते हैं। यह एक ऐसा मंदिर था जो आगे चलकर भारत का पहला ज्योतिर्लिंग बना और अनगिनत भक्तों के आस्था का केंद्र भी।
पुराणों के अनुसार, यह मंदिर केवल एक बार नहीं, बल्कि हर युगों में अलग-अलग रूपों में निर्मित हुआ। सतयुग में इसे चंद्रदेव ने सोने से बनाया था। त्रेता युग में शिवजी के परम भक्त रावण ने इसे चांदी से बनाया था और द्वापर युग में स्वयं श्रीकृष्ण इसे चंदन की लकड़ी से बनाया था।
सोमनाथ मंदिर का इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार, प्राचीन मंदिर का समय 649 ई पूर्व से पता लगाया जाता है। परंतु ऐसा माना जाता है कि यह उससे भी ज्यादा पुराना है। सातवीं सदी में दूसरी बार 'वल्लभी' के मैत्रक राजाओं ने इसका निर्माण किया था। आठवीं सदी में अरबी गवर्नर जुनायद इसे नष्ट करवाया था। फिर उसी सदी में गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ई में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण कराया। अरब यात्री अल बरूनी अपनी पुस्तक 'तारीख ए हिंद' में इस मंदिर के बारे में उल्लेख करता है। इस पुस्तक से प्रभावित होकर अफगानिस्तान के क्रूर शासक महमूद गजनवी 1026 ई में अपने सैनिकों के साथ सोमनाथ मंदिर में आक्रमण करता है। उस समय वहां मंदिर की रक्षा के लिए हजारों हिंदू योद्धा खड़े होते हैं। वे सभी योध्दा मंदिर की रक्षा के लिए पूरा डटकर युद्ध करते हैं, परंतु गजनवी की सेना उन पर भारी पड़ जाती है और युद्ध में 50000 से ज्यादा हिंदू रक्षक मारे जाते हैं। इसके बाद महमूद गजनवी गर्भगृह में पहुंच जाता है। जब वह अपने सैनिकों के साथ गर्भगृह में पहुंचता है, तो सभी सैनिक चिल्लाने लगते हैं। वे सभी देखते हैं कि एक सफेद शिवलिंग बिना किसी सहारे के हवा में उड़ रहा है। तब एक सैनिक अपने मियान से तलवार निकलता है, तो वह छत से चिपक जाता है। उन्हें पता चलता है कि मंदिर का गुंबद चुंबकीय पत्थरों से और शिवलिंग लोहे का बना हुआ था। इसी कारण शिवलिंग हवा में संतुलित रहता था। यह प्राचीन भारत के विज्ञान और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण था। महमूद गजनवी चुंबकीय गुंबद को तोड़कर हटाने का आदेश देता है। जैसे ही उसके सैनिक गुंबद के पत्थरों को तोड़ना शुरू करते हैं वैसे ही मंदिर का संतुलन बिगड़ जाता है। अंत में हवा में उड़ने वाला पवित्र शिवलिंग ज़मीन पर गिर जाता है। मंदिर के पुजारी महमूद गजनवी से शिवलिंग को न तोड़ने के लिए प्राथना करते हैं। वे उससे मंदिर की सारी संपत्ति ले जाने के लिए कहते हैं और शिवलिंग को न तोड़ने के लिए। परंतु गजनवी पुजारियों का बात नहीं मानता है और शिवलिंग को तोड़ देता है। गजनवी कुछ टुकड़ा अपने जमा मस्जिद के सीढ़ियों पर लगवा देता है ताकि हर नवाजी के पांव से हिंदू आस्था को रौंदा जा सके। वह कुछ टुकड़ों को मक्का और मदीना भिजवा कर वहां मस्जिदों के फर्श पर दफनवा देता है। कुछ टुकड़ों को ब्राह्मण पुजारियों द्वारा छिपा लिया जाता है। उनका यह मानना था कि वो टुकड़े नहीं बल्कि सनातन धर्म की आत्मा है। गजनवी अपने साथ लगभग 1 लाख स्त्रियों और बच्चों को बंधक बनाकर गजनी ले जाता है और वहां उन्हें गुलाम बाजारों में जानवरों की तरह बेचता है। साथ ही वह अपने साथ सैकड़ों करोड़ों की कीमती खजानों और संपत्तियों को लूटकर गजनी ले जाता है।
13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता और साहित्यकार जकरिया अल काजिनी ने सोमनाथ मंदिर के विषय में लिखा है कि मंदिर के अंदर गर्भगृह के बीचों-बीच एक विशाल पत्थर था जो बिना किसी सहारे के हवा में लटक रहा था। न ही उसके ऊपर कोई रस्सी थी, न ही नीचे कोई आधार था। वह बिना किसी स्पष्ट कारण के हवा में स्थिर था जो सभी के लिए आश्चर्य का विषय था।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार शिवलिंग में एक और विशेष तत्व उपस्थित था जिसे श्यामंतक मणि कहा जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इसे स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने शिवलिंग के भीतर स्थापित किया था। ऐसा कहा जाता है कि यह मणि हर दिन 77 किलो सोना उत्पन्न करती थी। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया था।
महमूद गजनवी के बाद 1299 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी अपने मंत्री उलूग खान को मंदिर पर आक्रमण करने के लिए भेजता है। उस समय सौराष्ट्र के 16 वर्षीय हमीरजी गोहिल अपने भील साथियों के साथ मंदिर का मोर्चा संभालते हैं। हमीर जी और उनके साथी लगभग 9 दिन तक युद्ध लड़ते हैं, परंतु धीरे-धीरे उनके सारे साथी मारे जाते हैं। हमीरजी का सर लड़ते-लड़ते धड़ से अलग हो जाता है, परंतु वे फिर भी कुछ समय तक शत्रुओं से लड़ते रहे। यह दृश्य देखकर उनके शत्रु भी उनसे डर जाते हैं। अंत में मुस्लिम सेना मंदिर में कब्जा करने में सफल हो जाती है और हमीरजी शहीद हो जाते हैं। उनका बलिदान मंदिर को बचा तो नहीं सका, परंतु उनका बलिदान आज भी अमर है। सोमनाथ मंदिर में आज भी उनके सम्मान में एक परंपरा निभाई जाती है। मंदिर के शिखर में लगने वाली धर्म ध्वजा पहले हमीरजी के स्मारक से स्पर्श कराया जाता है और फिर मंदिर के ऊपर लहराया जाता है।
मंदिर को ध्वस्त करने का सिलसिला यहीं नहीं रुकता है। आगे इसे और भी कई आक्रमणकारी लूटकर तोड़ने का प्रयास करते हैं। 1326 ईस्वी में मोहम्मद बिन तुगलक बचे हुए संरचना को ध्वस्त करता है । 1395 ईस्वी में गुजरात का अंतिम गवर्नर जफर खान(मुजफ्फर शाह प्रथम) मंदिर को लूट कर ध्वस्त करता है।
1451 ई में गुजरात का सुल्तान महमूद बेगड़ा मंदिर पर आक्रमण कर उसे ध्वस्त करता है
फिर अंत में 1665 ई और 1706 ई में औरंगज़ेब मंदिर को बुरी तरह से लूटकर उसे तोड़ देता है और वहां मस्जिद बनाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर पर कुल 17 बार आक्रमण हुआ।
कई सालों बाद जब अहिल्याबाई होलकर सोमनाथ पहुंचती है, तो वे मंदिर की दुर्दशा देखकर बहुत ही दुखी हो जाती है। उन्हें विश्वास नहीं होता है कि वह प्राचीन सोमनाथ मंदिर है। अहिल्याबाई मूल मंदिर से कुछ दूरी पर महादेव का एक नया सोमनाथ मंदिर बनवाती है। इस छोटे मंदिर में वे नियमित पूजा अर्चना करवाती है।
आज के मंदिर का निर्माण
भारत के स्वतंत्र होने के बाद इस मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल लेते हैं। 12 नवंबर 1947 को सरदार पटेल जूनागढ़ पहुंचते हैं। वे वहां पहुंचकर एक बड़ी जनसभा में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का घोषणा करते हैं। लेकिन इसका निर्णय लेना सरदार पटेल के लिए भी आसान नहीं था। राष्ट्रीय स्वतंत्र हो चुका था, परंतु कुछ लोगों का मानना था कि मंदिर का पुनर्निर्माण भारत की धर्मनिरपेक्षता की छवि को ठेस पहुंचा सकता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में सरकारी खर्चे से मंदिर के पुनर्निर्माण करने की बात होती है, परंतु इस बात की जानकारी पंडित नेहरू को होने पर वे नाराज हो जाते हैं। वे कन्हैया लाल को निर्देश देते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य अपने राजकोष से अपने ऐतिहासिक प्रतिशोध के लिए इस कार्य को फंड नहीं दे सकता है। गांधीजी कहते हैं कि मंदिर का निर्माण सरकारी खर्चे से नहीं, बल्कि लोगों से धन एकत्रित करके किया जाएगा। सरदार पटेल गांधी जी की इस सलाह को स्वीकार कर लेते हैं ताकि धर्मनिरपेक्ष सरकार पर कोई प्रत्यक्ष बोझ न पड़े। 1949 में कन्हैया लाल की उपस्थिति में श्री सोमनाथ ट्रस्ट का स्थापना होता है और मंदिर निर्माण का जिम्मेदारी इसी ट्रस्ट को सौंपा जाता है। जब 1950 में सरदार पटेल का निधन हो जाता है, तब नव निर्मित सोमनाथ मंदिर में देवता के प्राण प्रतिष्ठा का समय आता है। कन्हैयालाल मुंशी भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से संपर्क करके उनसे अनुरोध करते हैं कि वह इस ऐतिहासिक समारोह में सम्मिलित हो। डॉ राजेंद्र प्रसाद उनका यह आमंत्रण प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करते हैं। जब प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को इस बात की जानकारी होती है, तो वे इस पर आपत्ति जताते हैं। इन सबके बावजूद 11 में 1951 को डॉ राजेंद्र प्रसाद विधिवत रूप से 'सोमनाथ जतिर्लिंग' का प्राण प्रतिष्ठा करते हैं।
सोमनाथ मंदिर के रहस्य
बाण स्तंभ - सोमनाथ मंदिर में एक बाण स्तंभ है। यह बहुत ही प्राचीन माना जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस स्तंभ का उल्लेख 6 वीं शताब्दी है, परंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है कि इसका निर्माण कब हुआ था और इसका निर्माण किसने किया था। जानकारों के अनुसार बाण स्तंभ एक दिशा दर्शक है। इसके ऊपरी हिस्से पर एक तीर है जिसका मुख समुद्र की ओर है। इस स्तंभ में एक बात लिखा हुआ है 'आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिर्मार्ग'। इसका हिंदी में अर्थ यह है कि सोमनाथ मंदिर के इस बिंदु से लेकर दक्षिण ध्रुव तक एक सीधी रेखा खींचने पर एक भी पहाड़ या भूखंड का टुकड़ा नहीं है। यहां 100% सही है। प्राचीन भारत में हमारे पूर्वजों ने बिना किसी विकसित तकनीक के यह बात कैसे इतना सटीक कहा, एक अद्भुत और आश्चर्यजनक है।
मंदिर के नीचे छिपी इमारत - इस मंदिर के विषय में कोई नहीं जानता है कि इसका निर्माण कब हुआ। 2020 में इस मंदिर के नीचे आज के आधुनिक तकनीक द्वारा मंदिर के जमीन के नीचे से कुछ ऐसा पता लगाया गया जिसे देखकर सभी दंग रह गए। खोजकर्ताओं को पता चला कि मंदिर के नीचे तीन मंजिला इमारत है जिसकी इमारत की पहली गहराई ढाई मीटर, दूसरी गहराई 5 मी और तीसरी मंजिल की गहराई 7 मीटर है और इस बड़े मंदिर का डिजाइन L अकार में बना हुआ है। इस खोज से सभी दंग रह गए कि आखिर यह इमारत किसने बनाई होगी।
मंदिर का नाम बदलना - स्कंद पुराण के अनुसार जब दुनिया का पुनर्निर्माण होगा तब सोमनाथ मंदिर का नाम बदल जाएगा। सतयुग में इसे सोमनाथ कहा गया, त्रेता युग में प्राणनाथ, और द्वापर युग में भैरवनाथ और कलयुग में फिर से इसे सोमनाथ कहा गया। पुराणों के अनुसार इसे भविष्य में प्राणनाथ कहा जाएगा।
मंदिर के पास उपस्थित नदी - इस मंदिर के पास गोमती नदी है। सूर्यास्त होते ही इस मंदिर का जलस्तर अचानक घटने लगता है। सुबह के समय करीब 1 से 2 फिट रहता है, परंतु सूर्योदय होने पर अचानक ही नदी का जलस्तर बढ़ने लगता है।
मंदिर के पास उपस्थित अरब सागर - हजारों वर्षों से सोमनाथ मंदिर अरब सागर के पास है, परंतु कभी भी इस सागर ने मंदिर को कोई क्षति नहीं पहुंचाया। अनेकों तूफान आने पर भी यह मंदिर अपनी जगह पर अडिग रहा। यहां जब भी कोई तूफान आता है, तो समुद्र का जल मंदिर के पास आकर थम जाता है। लोग इसे शिवजी के रक्षा का चमत्कार मानते हैं।



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